धान की खेती (Dhan ki kheti) (वैज्ञानिक नाम : Oryza sativa L.) भारत की सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसल है, जो देश की कुल खाद्यान्न उत्पादन का 20 प्रतिशत और खेती के क्षेत्रफल का 44 प्रतिशत योगदान करती है। धान की खेती (Dhan ki kheti) विभिन्न भौगोलिक और जलवायु परिस्थितियों में की जाती है, जिनमें उष्णकटिबंधीय, उपोष्णकटिबंधीय, शुष्क, बाढ़ प्रभावित, ऊसरीली और पहाड़ी क्षेत्र भी शामिल हैं।
धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए विभिन्न प्रकार की बुवाई विधियां प्रयोग की जाती हैं, जैसे रोपाई, छिड़काव, सीधी बुवाई, ड्राई डायरेक्ट सीडेड राइस (DSR) और वेट डायरेक्ट सीडेड राइस (WDSR)। इन सभी विधियों में से रोपाई विधि सबसे ज्यादा लोकप्रिय और प्रचलित है। इस विधि का प्रयोग लगभग 60 प्रतिशत क्षेत्रफल पर की जाती है।
भारत में धान की खेती की स्थिति
भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा धान उत्पादक देश है, जो वैश्विक उत्पादन का लगभग 22% योगदान देता है। भारत में धान की खेती (Dhan ki kheti) लगभग 44 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर की जाती है और वार्षिक उत्पादन लगभग 117 मिलियन टन है। भारत में धान की खेती (Dhan ki kheti) विविध प्रकार के जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों में की जाती है, जो विभिन्न किस्मों और उत्पादन पद्धतियों को जन्म देती हैं।
प्रमुख धान उत्पादक राज्य
भारत में धान उत्पादन में पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, ओडिशा, तमिलनाडु और पंजाब प्रमुख राज्य हैं।
पश्चिम बंगाल: राज्य में प्रमुख धान उत्पादक जिलों में पुरुलिया, बर्दवान और हुगली शामिल हैं।
उत्तर प्रदेश: गोरखपुर, बस्ती, देवरिया और बाराबंकी जैसे जिले प्रमुख उत्पादक हैं।
आंध्र प्रदेश: पूर्वी गोदावरी, पश्चिमी गोदावरी, कृष्णा, और गुंटूर जिले उच्च उत्पादन के लिए जाने जाते हैं।
बिहार: पटना, समस्तीपुर, और दरभंगा जिले धान उत्पादन में अग्रणी हैं।
छत्तीसगढ़: रायपुर, दुर्ग, और बस्तर जिले प्रमुख हैं।
ओडिशा: कटक, पुरी, और बालासोर जिले प्रमुख उत्पादक हैं।
तमिलनाडु: तंजावुर, तिरुवरुर, और नागापट्टिनम जिले उच्च उत्पादन के लिए जाने जाते हैं।
पंजाब: अमृतसर, जालंधर, और लुधियाना जिले प्रमुख हैं।
धान को खेत में बीज के रूप में नहीं बल्कि पौध के रूप में लगाया जाता है। धान की खेती (Dhan ki kheti) अधिक मेहनत वाली फसल है। इस लेख में, भारत में धान की खेती (Dhan ki kheti) की उत्पादकता और सततता को बढ़ाने के लिए आमने-सामने हो रही चुनौतियों और उनके समाधान के बारे में विस्तार से बताया गया है।
धान की खेती के प्रकार (Dhan ki kheti ke prakar)
भारत में धान की खेती (Dhan ki kheti) तीन प्रकार की होती है: वर्षा प्रभावित, सिंचित और ऊसरीली।
वर्षा प्रभावित धान की खेती (Dhan ki kheti)
वर्षा प्रभावित धान की खेती में धान की बुवाई वर्षा के आधार पर की जाती है। इसमें जल की कमी का सामना करना पड़ता है, इसलिए इसके लिए जल संरक्षण और जलव्यवस्थापन की आवश्यकता होती है। इस प्रकार की खेती में ज्यादातर शीघ्र पकने वाली और सूखा सहिष्णु किस्में बोई जाती हैं। इस प्रकार की खेती में धान की बुवाई छिड़काव या सीधी बुवाई के जरिए की जाती है।
सिंचित धान की खेती (Dhan ki kheti)
सिंचित धान की खेती (Dhan ki kheti) में धान की बुवाई और रोपाई के लिए जल की पर्याप्त उपलब्धता होती है। इसमें जल का अधिक उपयोग होता है, इसलिए इसके लिए जल की बर्बादी और जल स्तर की कमी को रोकने के लिए जल की समुचित व्यवस्था की जरूरत होती है। इस प्रकार की खेती में ज्यादातर मध्यम अवधि या दीर्घ अवधि वाली किस्में बोई जाती हैं। इस प्रकार की खेती में धान की बुवाई नर्सरी में की जाती है, और फिर पौधों को खेत में रोपाई की जाती है।
ऊसरीली धान की खेती (Dhan ki kheti)
ऊसरीली धान की खेती (Dhan ki kheti) में धान की बुवाई ऊसरीली या खारी मिट्टी में की जाती है। इसमें जल की बहुत कम आवश्यकता होती है, इसलिए इसके लिए जल की बचत और जल की गुणवत्ता का ध्यान रखना होता है। इस प्रकार की खेती में ज्यादातर ऊसर सहिष्णु और नमक सहिष्णु किस्में बोई जाती हैं। इस प्रकार की खेती में धान की बुवाई छिड़काव या ड्राय डायरेक्ट सीडिंग (DDS) के जरिए की जाती है।
धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए उपयुक्त किस्में
भारत में धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए विभिन्न किस्में उपलब्ध हैं, जो अलग-अलग प्रकार की जलवायु, मिट्टी, जल स्तर, रोग-कीट और उपज के आधार पर चुनी जाती हैं। इनमें से कुछ प्रमुख किस्में निम्नलिखित हैं:
जलवायु के आधार पर धान की उन्नत किस्मे
बासमती धान की उन्नत किस्मे:
यह एक प्रसिद्ध और महंगी किस्म है, जो उत्तर भारत में अधिक उगाई जाती है। इसकी खासियत इसकी लंबी, दुर्गंधित और चिकनी दानें हैं, जो पकने पर फूल जाती हैं। इसकी उपज कम होती है, लेकिन इसका मूल्य अधिक होता है। इसके लिए जल की अधिक आवश्यकता होती है। इसके लिए प्रमुख किस्में हैं: पूसा बासमती, तारावती बासमती, पंजाब बासमती, हरियाणा बासमती, कर्नाल बासमती आदि।
किस्म का नाम | विशेषताएँ | उत्पादन (टन/हेक्टेयर) | फसल अवधि (दिन) |
पुसा बासमती 1121 | लंबा और पतला दाना, पकने पर खुशबूदार और मुलायम | 4-5 | 145-150 |
पुसा बासमती 1509 | जल्दी पकने वाली किस्म, लंबा और पतला दाना | 4.5 | 115-120 |
पुसा बासमती 6 | मध्यम लंबाई का दाना, सुगंधित | 5 | 140-145 |
वर्ल्ड बासमती | उत्कृष्ट स्वाद और सुगंध, लंबा दाना | 3-4 | 140-145 |
पंजाब बासमती 1 | लंबा और पतला दाना, पकने पर सफेद और फूला हुआ | 4-5 | 140-145 |
ताराोरी बासमती | पारंपरिक बासमती के समान, लंबा और पतला दाना, उच्च सुगंध | 3-4 | 145-150 |
जिन्ना बासमती | लंबा और पतला दाना, पकने पर मुलायम और खुशबूदार | 4-5 | 135-140 |
उत्तर पूर्वी धान की उन्नत किस्मे
यह एक विशेष प्रकार का धान है, जो उत्तर पूर्वी भारत के पहाड़ी इलाकों में उगाया जाता है। इसकी खासियत इसकी छोटी, मोटी और गोल दानें हैं, जो पकने पर चिपचिपे और चश्नीदार होती हैं। इसकी उपज मध्यम होती है, लेकिन इसका पौष्टिक मूल्य अधिक होता है। इसके लिए जल की कम आवश्यकता होती है, और इसे अधिक ऊंचाई वाले ठंडे क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है। उत्तर पूर्वी धान की खेती (Dhan ki kheti) जैविक तरीके से भी की जा सकती है, जो इसे और भी अधिक स्वास्थ्यवर्धक बनाती है। इसके उत्पादन के लिए, किसानों को उचित जल निकासी और मिट्टी की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान देना चाहिए, ताकि फसल अच्छी हो सके।
किस्म का नाम | विशेषताएँ | उत्पादन (टन/हेक्टेयर) | फसल अवधि (दिन) |
एरोमैटिक मणिपुर | छोटी, मोटी और गोल दाना, पकने पर चिपचिपे और चश्नीदार | 2-3 | 120-130 |
शही राइस | सुगंधित, मध्यम लंबाई का दाना | 3-4 | 140-145 |
होपाई धान | पारंपरिक स्वाद, उच्च पोषण मूल्य | 2.5-3.5 | 135-140 |
काली नुनिया | काले रंग का दाना, उच्च एंटीऑक्सिडेंट सामग्री | 2-3 | 130-135 |
कर्जन चावल | लंबा और पतला दाना, पकने पर मुलायम और स्वादिष्ट | 3-4 | 125-130 |
लोंगपी राइस | ऊंचाई वाले ठंडे क्षेत्रों के लिए उपयुक्त | 2.5-3 | 130-135 |
टूलू राइस | कम जल की आवश्यकता, जैविक खेती के लिए उपयुक्त | 2-3 | 120-125 |
ऊसरीली धान की की उन्नत किस्मे
इस प्रकार की खेती में धान की बुवाई ऊसरीली या खारी मिट्टी में की जाती है। इसमें जल की बहुत कम आवश्यकता होती है, इसलिए इसके लिए जल की बचत और जल की गुणवत्ता का ध्यान रखना होता है। इस प्रकार की खेती में ज्यादातर ऊसर सहिष्णु और नमक सहिष्णु किस्में बोई जाती हैं। इस प्रकार की खेती में धान की बुवाई छिड़काव या ड्राय डायरेक्ट सीडिंग (DDS) के जरिए की जाती है।
किस्म का नाम | विशेषताएँ | उत्पादन (टन/हेक्टेयर) | फसल अवधि (दिन) |
CSR 10 | ऊसर भूमि के लिए उपयुक्त, अच्छा नमक सहिष्णु, मध्यम लंबाई का दाना | 6 | 120-125 |
CSR 23 | अधिक नमक सहिष्णु, अच्छी उपज, सुगंधित | 2.5-3.5 | 130-135 |
CSR 30 | मध्यम ऊंचाई की पौध, नमक सहिष्णु, पकने पर मुलायम | 2-3 | 145-150 |
Narendra Usar 3 (NDRK 50035) | ऊसर और क्षारीय मिट्टी के लिए उपयुक्त, अच्छा उत्पादन | 2-2.5 | 135-140 |
CSR 36 | उच्च नमक सहिष्णु, लंबा और पतला दाना | 2.5-3 | 140-145 |
CSR 43 | जल्दी पकने वाली किस्म, ऊसर भूमि में अच्छी उपज | 3-4 | 120-125 |
CSR 46 | ऊसर और क्षारीय भूमि के लिए उपयुक्त, सुगंधित | 2-2.5 | 135-140 |
पकने के समय अवधि के आधार पर धान की उन्नत किस्मे
अतिशीघ्र पकने वाली धान की उन्नत किस्मे
किस्म का नाम | विशेषताएँ | उत्पादन (टन/हेक्टेयर) | फसल अवधि (दिन) | अनुसंशित वर्ष |
धान लक्ष्मी | जल्दी पकने वाली, उच्च उपज, मध्यम लंबाई का दाना | 4-5 | 90-95 | 2010 |
धान प्रभात | पकने पर सुगंधित, अच्छा उत्पादन | 3-4 | 95-100 | 2012 |
धान संकर 6444 | उच्च उपज, बेहतर रोग प्रतिरोधक क्षमता | 5-6 | 85-90 | 2015 |
धान आर.आर.एच. 1 | लंबा और पतला दाना, जल्दी पकने वाली किस्म | 4-5 | 95-100 | 2011 |
धान पुशकल | जल्दी पकने वाली, अच्छी उपज, पकने पर मुलायम और स्वादिष्ट | 3.5-4.5 | 90-95 | 2013 |
धान सुरभि | मध्यम लंबाई का दाना, जल्दी पकने वाली, पकने पर सुगंधित | 3-4 | 90-95 | 2014 |
धान नवगिरि | जल्दी पकने वाली, उच्च उपज, पकने पर मुलायम | 4-5 | 85-90 | 2016 |
धान सहभागी | जल्दी पकने वाली, अधिक उपज, सुगंधित | 3.5-4 | 90-95 | 2011 |
धान दन्तेश्वरी | जल्दी पकने वाली, मध्यम उपज, पकने पर मुलायम और स्वादिष्ट | 3-3.5 | 85-90 | 2001 |
मध्यम अवधि में पकने वाली धान की उन्नत किस्मे
किस्म का नाम | विशेषताएँ | उत्पादन (टन/हेक्टेयर) | फसल अवधि (दिन) | अनुसंशित वर्ष |
स्वर्णा | उच्च उपज, लंबा और पतला दाना, पकने पर सुगंधित | 4-5 | 130-135 | 2005 |
सांभा मसूरी | सुगंधित, पकने पर मुलायम और स्वादिष्ट | 3-4 | 130-135 | 2007 |
पीआर 113 | उच्च उपज, रोग प्रतिरोधक क्षमता, मध्यम लंबाई का दाना | 5-6 | 125-130 | 2009 |
शरबती | लंबा और पतला दाना, पकने पर सुगंधित और मुलायम | 4-5 | 130-135 | 2011 |
धनलक्ष्मी | मध्यम ऊंचाई की पौध, अच्छी उपज, पकने पर स्वादिष्ट | 4-4.5 | 125-130 | 2013 |
आर.आर.एच. 2 | रोग प्रतिरोधक, मध्यम लंबाई का दाना, उच्च उपज | 5-6 | 130-135 | 2015 |
कस्तूरी | सुगंधित, मध्यम ऊंचाई की पौध, पकने पर मुलायम | 3.5-4.5 | 130-135 | 2016 |
जयश्री | मध्यम अवधि, उच्च उपज, लंबा और पतला दाना | 4-5 | 125-130 | 2018 |
एमटीयू 1010 | अच्छा उत्पादन, बेहतर रोग प्रतिरोधक क्षमता | 4-5 | 125-130 | 2017 |
स्वर्णा सुभ 1 | सुगंधित, उच्च उपज, पकने पर मुलायम | 4-5 | 130-135 | 2014 |
मधुकर 105 | अच्छा उत्पादन, रोग प्रतिरोधक क्षमता | 4-4.5 | 125-130 | 2015 |
पीआर 121 | उच्च उपज, बेहतर रोग प्रतिरोधक क्षमता | 5-6 | 125-130 | 2016 |
आईआर 64 | रोग प्रतिरोधक, उच्च उपज, मध्यम लंबाई का दाना | 4-5 | 130-135 | 2012 |
रत्ना | लंबा और पतला दाना, पकने पर सुगंधित और मुलायम | 3.5-4.5 | 125-130 | 2013 |
सबरंग 100 | सुगंधित, अच्छी उपज, मध्यम लंबाई का दाना | 4-5 | 130-135 | 2017 |
बोई जाने वाली बीज की मात्रा
धान के बीज की मात्रा इस बात पर निर्भर करता है की इस किस विधि से बोई जा रही है।
विभिन्न विधि से बोए जाने पर लगने वाले धान के बीज की मात्रा :
- श्री विधि से बोने पर 5 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से धान के बीज की खपत होती है।
- रोपाई पद्धती से बोने पर लगभग 10 से 12 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से धान के बीज की खपत होती है।
- कतार विधि से बोने पर लगभग 20 से 25 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से धान के बीज की खपत होती है।
- ड्रम सीडर विधि से बोने पर लगभग 50 से 55 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से धान के बीज की खपत होती है।
धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए उपयुक्त समय और मौसम
भारत में धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए तीन मुख्य समय और मौसम हैं: खरीफ, रबी और जायद।
खरीफ धान
यह धान की सबसे बड़ी फसल है, जो जून से सितंबर के बीच बोई जाती है। इसके लिए वर्षा का अधिक निर्भरता होता है। इसके लिए तापमान का सामान्य स्तर 25-35°C होना चाहिए। इसके लिए उपयुक्त किस्में हैं: जया, सवित्री, पद्म, रत्न, अजय, आदि।
रबी धान
यह धान की दूसरी सबसे बड़ी फसल है, जो अक्टूबर से जनवरी के बीच बोई जाती है। इसके लिए सिंचाई की आवश्यकता होती है। इसके लिए तापमान का सामान्य स्तर 20-30°C होना चाहिए। इसके लिए उपयुक्त किस्में हैं: पूसा, शरभती, गोविंद, राजेश्वरी, आदि।
जायद धान
यह धान की तीसरी सबसे बड़ी फसल है, जो फरवरी से मई के बीच बोई जाती है। इसके लिए भी सिंचाई की आवश्यकता होती है। इसके लिए तापमान का सामान्य स्तर 25-40°C होना चाहिए। इसके लिए उपयुक्त किस्में हैं: नवरा, नरेश, नंदिनी, आदि।
धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए जमीन की तैयारी
धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए जमीन की अच्छी तरह से तैयारी करना बहुत जरूरी है, क्योंकि इससे धान के पौधों को जल, हवा, उर्वरक और रोग-कीट से बचाने में मदद मिलती है। जमीन की तैयारी के लिए निम्नलिखित चरणों का पालन करना चाहिए:
जमीन का चुनाव
धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए जमीन का चुनाव उसकी उपजदारता, जल स्तर, पी.एच. मान, ऊसरता, नमकीयता और रोग-कीट के आधार पर किया जाना चाहिए। धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए जमीन का पी.एच. मान 5.5 से 6.5 के बीच होना चाहिए। जमीन में ऊसर या नमक अधिक होने पर उसे चूना या गोबर के खाद से सुधारा जा सकता है। जमीन में रोग-कीट की संभावना होने पर उसे उचित रासायनिक या जैविक कीटनाशकों से नियंत्रित किया जा सकता है।
जमीन का जोतना
धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए जमीन को अच्छी तरह से जोतना जरूरी है, ताकि जमीन का हल्का, बारीक और समतल हो जाए। जमीन को जोतने के लिए हल, ट्रैक्टर, पावर टिलर या रोटावेटर का प्रयोग किया जा सकता है। जमीन को जोतने के बाद उसे अच्छी तरह से बराबर करना चाहिए, ताकि जल का समान रूप से वितरण हो सके।
जमीन का लेवलिंग
धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए जमीन को लेवलिंग करना भी आवश्यक है, ताकि जल का अतिरिक्त निकास हो सके, और जल की बर्बादी रोकी जा सके। जमीन को लेवलिंग के लिए लेवलर, लैंड प्लेनर, लेजर लेवलर या बोर्ड लेवलर का प्रयोग किया जा सकता है। जमीन को लेवलिंग करने से पहले उसे अच्छी तरह से गीला करना चाहिए, ताकि जमीन के टुकड़े आसानी से टूट जाएं।
जमीन का फासल बदल
धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए जमीन का फासल बदल करना भी लाभदायक होता है, क्योंकि इससे जमीन की उर्वरता बढ़ती है, और रोग-कीट का प्रभाव कम होता है। धान की खेती (Dhan ki kheti) के बाद जमीन में अन्य फसलें जैसे गेहूं, चना, मटर, सरसों, आलू, गन्ना, आदि बोई जा सकती हैं। इससे जमीन में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटैशियम और अन्य पोषक तत्वों का संतुलन बना रहता है।
धान के बीज का चुनाव
धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए बीज की चुनाव और बुवाई का भी बहुत महत्व है, क्योंकि इससे धान की उपज, गुणवत्ता और रोग-प्रतिरोधक क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। बीज की चुनाव और बुवाई के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:
धान के बीज का चुनाव
धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए बीज का चुनाव करते समय उसकी किस्म, अवधि, उपज, गुणवत्ता, रोग-प्रतिरोधक क्षमता, जल सहिष्णुता, ऊसर सहिष्णुता, नमक सहिष्णुता, आदि का ध्यान रखना चाहिए। बीज को विश्वसनीय स्रोतों से ही खरीदना चाहिए, जैसे कृषि विज्ञान केंद्र आदि।
धान का बीजोपचार
धान के बीजोपचार की जानकारी कुछ इस प्रकार है:
बीजोपचार का महत्व
धान के उत्पादन में बीज की गुणवत्ता का बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है। अच्छे बीजों से ही स्वस्थ पौधे और बेहतर उपज प्राप्त होती है। बीजोपचार से बीज में उपस्थित फफूंद और अन्य रोगों के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं, जिससे पौधों की वृद्धि और उत्पादन में वृद्धि होती है।
बीजोपचार के उद्देश्य
रोग नियंत्रण: बीज जनित और मृदा जनित रोगों से बचाव।
अंकुरण क्षमता बढ़ाना: बीजों की अंकुरण क्षमता में सुधार।
पौधों की प्रारंभिक वृद्धि: पौधों की शुरुआती वृद्धि में मदद।
फसल की पैदावार बढ़ाना: स्वस्थ पौधों से उच्च उपज प्राप्त करना।
बीजोपचार की विधियाँ
धान के बीजों का बीजोपचार विभिन्न फफूंदनाशक दवाओं से किया जा सकता है। यहां हम तीन प्रमुख फफूंदनाशक दवाओं की जानकारी देंगे जो आमतौर पर बीजोपचार में उपयोग की जाती हैं।
फफूंदनाशक से बीजोपचार
कार्बेन्डाजिम (Carbendazim)
उपयोग की मात्रा: 2.5 ग्राम/किग्रा बीज
विवरण: कार्बेन्डाजिम एक प्रभावी फफूंदनाशक है जो बीज में उपस्थित विभिन्न प्रकार के फफूंदों को नष्ट करता है तथा कवक जनित रोगों से बचाता है जैसे कि ब्लास्ट और शीथ ब्लाइट। यह बीज की सतह पर एक सुरक्षा कवच बनाता है, जिससे फफूंद बीज को नुकसान नहीं पहुंचा पाती।
लाभ:
- रोगों से बचाव: कार्बेन्डाजिम का उपयोग बीजों को अनेक फफूंद जनित रोगों से बचाने में सहायक होता है।
- स्वस्थ पौध: बीजोपचार के बाद उगने वाले पौधे स्वस्थ होते हैं और उनकी वृद्धि दर बेहतर होती है।
कार्बेन्डाजिम + मैन्कोजेब (Carbendazim + Mancozeb)
उपयोग की मात्रा: 3 ग्राम/किग्रा बीज
विवरण: कार्बेन्डाजिम और मैन्कोजेब का मिश्रण फफूंदनाशक दवाओं का संयोजन है जो फफूंद और अन्य रोगजनकों को प्रभावी ढंग से नष्ट करता है।
लाभ:
दोहरी सुरक्षा: इस मिश्रण का उपयोग बीज को दो प्रकार के फफूंदनाशकों की सुरक्षा प्रदान करता है, जिससे फफूंद और अन्य रोगजनकों के खिलाफ अधिक प्रभावी बचाव होता है।
बेहतर उपज: यह संयोजन बीज को अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करता है, जिससे पौधों की वृद्धि और उत्पादन में सुधार होता है।
कार्बोक्सिन + थायरम (Carboxin + Thiram)
उपयोग की मात्रा: 3 ग्राम/किग्रा बीज
विवरण: कार्बोक्सिन और थायरम का मिश्रण बीज को फफूंद और अन्य रोगजनकों से बचाने के लिए एक उत्कृष्ट विकल्प है। यह मिश्रण बीज की सतह पर एक सुरक्षा कवच बनाता है।
लाभ:
व्यापक स्पेक्ट्रम: यह मिश्रण बीज को कई प्रकार के फफूंद और रोगजनकों से बचाता है।
पौधों की सुरक्षा: बीजोपचार के बाद उगने वाले पौधे स्वस्थ होते हैं और उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
कीटनाशक से बीजोपचार
1.इमिडाक्लोप्रिड: 5 मिली/किग्रा बीज।
उपयोग: यह बीजों को कीटों से बचाता है, विशेष रूप से जमीन के कीटों से।
2.थायोमेथोक्साम: 3 ग्राम/किग्रा बीज।
उपयोग: यह बीजों को शुरूआती कीटों से बचाव में प्रभावी है।
जैविक बीजोपचार
1.ट्राइकोडर्मा: 4 ग्राम/किग्रा बीज।
उपयोग: यह जैविक एजेंट बीजों को फफूंद जनित रोगों से बचाता है।
2.पिसिलियोमाइसेस: 5 ग्राम/किग्रा बीज।
उपयोग: यह प्राकृतिक फफूंदनाशक है जो बीजों को सुरक्षित रखता है।
बीजोपचार की प्रक्रिया
बीजोपचार की प्रक्रिया सरल है, लेकिन इसे ध्यान से और सही तरीके से करना आवश्यक है।
बीज की सफाई
- सबसे पहले बीजों को अच्छी तरह से साफ करें और किसी भी प्रकार के धूल, मिट्टी और अवांछित कणों को हटाएं।
- इसके लिए बीज को साफ पानी से धो सकते हैं।
दवा का मिश्रण
- उपयोग की जाने वाली फफूंदनाशक दवा की सही मात्रा (जैसे कि कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम/किग्रा बीज), कीटनाशक या जैविक एजेंट को मापें।
- दवा को एक साफ और सूखे बर्तन में लें।
बीज और दवा का मिश्रण
- साफ किए गए बीजों को दवा के बर्तन में डालें।
- बीज और दवा को अच्छी तरह से मिलाएं ताकि सभी बीजों पर दवा की समान परत चढ़ जाए।
सूखाना
- उपचारित बीजों को छाया में सूखने के लिए रखें।
- बीजों को धूप में न सुखाएं क्योंकि इससे दवा की प्रभावशीलता कम हो सकती है।
संचय
- उपचारित बीजों को साफ और सूखे बोरों में संग्रहित करें।
- बीजों को ठंडी और सूखी जगह पर रखें ताकि वे नमी और तापमान से सुरक्षित रहें।
- बीजों को नमी और कीटों से बचाएं।
ध्यान रखने योग्य बातें
- सही मात्रा:दवा की सही मात्रा का उपयोग करें।
- सुरक्षा: बीजोपचार करते समय सुरक्षा उपकरणों का प्रयोग करें।
- समय: बीजोपचार के बाद तुरंत बुवाई न करें, बीजों को सूखने दें।
धान की बेहतर उपज के लिए बीजोपचार एक आवश्यक प्रक्रिया है। कार्बेन्डाजिम, कार्बेन्डाजिम + मैन्कोजेब, और कार्बोक्सिन + थायरम जैसी फफूंदनाशक दवाओं का उपयोग बीजों को फफूंद और अन्य रोगजनकों से बचाने में सहायक होता है। सही विधि से बीजोपचार करने से स्वस्थ पौधों की प्राप्ति होती है, जो अंततः बेहतर उत्पादन में सहायक होती है।
धान के बीज की बुवाई
धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए बीज की बुवाई के लिए प्रमुख विधियां निम्नलिखित हैं:
श्री विधि से धान की खेती
श्री विधि से धान की खेती (Dhan ki kheti) की खोज अफ्रीका महाद्वीप के मेडागास्कर देश के चर्च के एक पादरी जिसका नाम हेनरी था किया था। भारत में श्री विधि का प्रयोग सर्वप्रथम सन् 2003 में आन्द्रप्रदेश राज्य में किया गया था। आन्द्रप्रदेश के सभी जिलों में (उस समय आन्द्रप्रदेश में 22 जिले हुआ करती थी।) इस विधि का प्रयोग किया गया था।
भूमि की तैयारी
- रोपाई या रोपनी से लगभग एक माह पूर्व खेत में 4 टन प्रति एकड़ के हिसाब से सड़ी हुई गोबर की खाद डाले।
- रोपाई या रोपनी से 3 हप्ते पहले नीम या करंज की खली को 2 एकड़ प्रति क्विंटल के हिसाब से खेत में बराबर सभी जगह डाल दे।
- रोपनी से लगभग 10 पहले से खेत की सिचाई तथा कदवा करे जिससे खर-पतवार सड़ जाये और मिट्टी में मिल जाये।
- रोपनी से एक दिन पहले भी कदवा करना जरूरी होता है इसे करना न भूले।
- खेत को समतल बनाने के बाद खेत में प्रत्येक 2-2 मीटर के अंतराल पर पानी निकले की व्यवस्था करें।
- रोपाई या रोपनी के लगभग 10 दिन पहले ही खेत की सिचाई के साथ-साथ उसका कदवा शुरू कर दे ताकि खेत में जो भी खर पतवार हो वो सड़ गल के मिट्टी में ही मिल जाए। ध्यान रखे कि रोपनी या बुआई से एक दिन पहले भी कदवा करना जरूरी है।
- रोपनी या बुआई वाले खेत के मिट्टी को पहले बराबर कर ले इसके बाद खेत में लगभग हर 2 मीटर पर पानी के निकले के लिए नाली बना ले जिससे समय-समय पर पानी को बदला जा सके।
धान की बुआई
- रोपाई या रोपनी के लिए तैयार किए गए खेत में गीली मिट्टी (कीचड़) से लगभग आधा से एक इंच ऊपर तक पानी सींच ले।
- कतारों की दूरी: कतार से कतार के बीच की दूरी लगभग 25 सेंटीमीटर रखें।
- बीजों की दूरी: बीज के बुआई के समय कतार में बीज से बीज के बीच की दूरी भी लगभग 25-25 सेंटीमीटर ही रखें।
- बुआई की गहराई: बीजों को कम गहराई लगभग 2-3 सेंटीमीटर गहराई में बोएं जिससे धान बीज का पौधा बुआई के बाद मिट्टी में न गिरे।
कतार विधि
कतार विधि (Line Sowing Method) श्री विधि (SRI) की महत्वपूर्ण तकनीक है, जो पौधों के बीच समान दूरी और पौधों के उचित विकास को सुनिश्चित करती है। इस विधि में बुआई की प्रक्रिया निम्नलिखित चरणों में की जाती है:
खेत की तैयारी
- खेत को समतल बनाएं और सुनिश्चित करें कि उसमें पानी का निकास अच्छी तरह से हो।
- खेत की सिंचाई करें और मिट्टी को गीला करें ताकि बुआई के समय मिट्टी पर्याप्त नमी बनी रहे।
कतारों की दूरी
- धान के बीजों को कतारों में बोने के लिए लगभग 25 सेंटीमीटर की दूरी रखें।
- कतारों के बीच की यह दूरी पौधों को पर्याप्त जगह देती है जिससे उनके विकास में बाधा नहीं होती।
बीजों की दूरी
- कतार में बीजों को 25 सेंटीमीटर की दूरी पर बोएं।
- इस दूरी पर बुआई करने से पौधों को पर्याप्त जगह मिलती है और पौधे स्वस्थ रहते हैं।
बुआई की गहराई
- बीजों को 2-3 सेंटीमीटर की गहराई में बोएं।
- बीजों को अधिक गहराई में नहीं बोना चाहिए, क्योंकि इससे अंकुरण में देरी हो सकती है।
बुआई के बाद
- बुआई के बाद खेत को हल्के पानी से सींचें ताकि बीज मिट्टी में अच्छी तरह से जम जाएं।
- खेत में खर-पतवार को नियंत्रित करने के लिए निराई-गुड़ाई करें।
कतार विधि के लाभ
कतार विधि (Line Sowing Method) में धान की बुआई करते समय बीजों को निर्धारित दूरी पर कतारों में बोया जाता है। इस विधि के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं:
समान वितरण
बीजों का समान वितरण होता है, जिससे पौधों को पर्याप्त जगह मिलती है और उनका विकास बेहतर होता है।
बेहतर प्रकाश और वायु संचरण
कतारों में पौधे होने से प्रकाश और वायु का संचरण बेहतर होता है, जिससे पौधे स्वस्थ रहते हैं और रोगों का कम प्रकोप होता है।
उचित जल प्रबंधन
पौधों के बीच समान दूरी होने के कारण पानी का प्रबंधन बेहतर होता है, जिससे जल की बचत होती है और पौधों को आवश्यक मात्रा में पानी मिलता है।
खर-पतवार नियंत्रण
कतारों में पौधे होने के कारण निराई-गुड़ाई आसानी से की जा सकती है, जिससे खर-पतवार पर प्रभावी नियंत्रण होता है।
उर्वरकों का समुचित उपयोग
उर्वरकों का समान वितरण किया जा सकता है, जिससे पौधों को आवश्यक पोषक तत्व मिलते हैं और उपज में वृद्धि होती है।
सर्वेक्षण और देखभाल में सुविधा
पौधों की कतारों में व्यवस्थित व्यवस्था होने के कारण फसल की निगरानी और देखभाल करना आसान होता है।
मशीनरी का उपयोग
कतार विधि में मशीनरी का उपयोग करना आसान होता है, जिससे श्रम और समय की बचत होती है।
ड्रम सीडर विधि
ड्रम सीडर विधि (Drum Seeder Method) एक उन्नत और श्रम बचत तकनीक है, जो धान की बुआई को तेज और प्रभावी बनाती है। इस विधि के अंतर्गत निम्नलिखित चरणों का पालन किया जाता है:
ड्रम सीडर का परिचय
- ड्रम सीडर एक यांत्रिक उपकरण है, जिसमें बीजों को समान दूरी पर कतारों में बोने के लिए ड्रम का उपयोग किया जाता है।
- इसमें एक या एक से अधिक ड्रम होते हैं, जिनमें बीज भरे जाते हैं।
खेत की तैयारी
- खेत को समतल और गीला बनाएं।
- मिट्टी को ठीक से तैयार करें ताकि बुआई के समय बीजों का जमाव अच्छा हो।
ड्रम सीडर का सेटअप
- ड्रम सीडर को सेट करें और उसमें बीज भरें।
- बीजों को समान रूप से वितरित करने के लिए ड्रम के छेदों का आकार सही रखें।
कतारों की दूरी और बीजों की गहराई
- ड्रम सीडर के माध्यम से बीजों को 25 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारों में बोएं।
- बीजों की गहराई 2-3 सेंटीमीटर रखें।
बुआई प्रक्रिया
- ड्रम सीडर को खेत में चलाकर बीजों की बुआई करें।
- यह विधि श्रम और समय दोनों की बचत करती है और बीजों का समान वितरण सुनिश्चित करती है।
बुआई के बाद देखभाल
- बुआई के बाद हल्के पानी से खेत की सिंचाई करें।
- निराई-गुड़ाई करें ताकि खर-पतवार नियंत्रण में रहे और पौधों का विकास सुचारू रूप से हो।
ड्रम सीडर विधि के लाभ
ड्रम सीडर विधि (Drum Seeder Method) एक उन्नत यांत्रिक तकनीक है, जो धान की बुआई को तेज और प्रभावी बनाती है। इस विधि के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं:
श्रम और समय की बचत
ड्रम सीडर का उपयोग करके कम समय में बड़े क्षेत्र में बुआई की जा सकती है, जिससे श्रम और समय दोनों की बचत होती है।
समान बीज वितरण
ड्रम सीडर के माध्यम से बीजों का समान वितरण होता है, जिससे पौधों को समान दूरी और गहराई पर बोया जा सकता है।
उच्च उपज
बीजों के समान वितरण और पौधों के उचित विकास के कारण उपज में वृद्धि होती है।
उपकरण की सादगी
ड्रम सीडर का उपयोग और रखरखाव आसान है, जिससे किसानों के लिए इसे अपनाना सरल होता है।
पानी की बचत
समान वितरण के कारण पानी का उपयोग कम होता है, जिससे जल संसाधनों की बचत होती है।
खर-पतवार नियंत्रण
पौधों के समान वितरण और उचित दूरी के कारण निराई-गुड़ाई करना आसान होता है, जिससे खर-पतवार पर प्रभावी नियंत्रण होता है।
मशीनरी के साथ संगतता
ड्रम सीडर विधि का उपयोग करते समय अन्य कृषि यंत्रों का उपयोग भी आसान होता है, जिससे खेती की प्रक्रिया में सुविधा होती है।
उर्वरक का समान वितरण
उर्वरकों का समान वितरण किया जा सकता है, जिससे पौधों को आवश्यक पोषक तत्व मिलते हैं और उपज में वृद्धि होती है।
कतार विधि और ड्रम सीडर विधि दोनों ही उन्नत खेती तकनीकें हैं, जिनका उपयोग करके किसान अपनी उपज और आय में सुधार कर सकते हैं। इन विधियों का समुचित उपयोग धान की खेती (Dhan ki kheti) को अधिक प्रभावी और लाभकारी बना सकता है।
उन्नत खुर्रा बुआई विधि (कतार में)
धान की उन्नत खुर्रा बुआई विधि (कतार में) धान की खेती (Dhan ki kheti) में एक महत्वपूर्ण तकनीक है, जो उत्पादन में सुधार और संसाधनों के प्रभावी उपयोग में सहायक होती है। यह विधि न केवल उत्पादन को बढ़ाती है, बल्कि जल, खाद, और श्रम की बचत भी करती है। इस लेख में, हम उन्नत खुर्रा बुआई विधि (कतार में) के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझेंगे।
उन्नत खुर्रा बुआई विधि का परिचय
उन्नत खुर्रा बुआई विधि में बीजों को एक निश्चित दूरी पर कतार में बोया जाता है। इस विधि से पौधों को उचित स्थान और पोषण मिलता है, जिससे उनकी वृद्धि और विकास में सुधार होता है।
भूमि की तैयारी
- जुताई: पहले भूमि को अच्छी तरह से जोतें ताकि मिट्टी में नमी और पोषक तत्व समा सकें।
- पाटा लगाना: जुताई के बाद पाटा लगाकर भूमि को समतल करें।
- नमी बनाए रखना: बुआई से पहले भूमि में पर्याप्त नमी सुनिश्चित करें।
धान की बुआई (कतार में)
- कतारों की दूरी: कतारों के बीच की दूरी 20-22 सेंटीमीटर रखें।
- बीजों की दूरी: बीज के बुआई के समय कतार में बीजों के बीच भी 20-22 सेंटीमीटर की दूरी रखें।
- बुआई की गहराई: बीजों को कम गहराई लगभग 2-3 सेंटीमीटर गहराई में बोएं।
बीज के बुआई के 3 दिनों के भीतर नींदानाशक जैसे पेन्डीमेथिलिन या ब्यूटाक्लोर को 1.2 लीटर या पाइराजोसल्फयुरान इथाइल 80.00 ग्राम/एकड़ के हिसाब से 200 लीटर पानी में घोल ले, इसके बाद मिट्टी की सतह पर इस प्रकार छिड़काव करें कि खेत में चारों तरफ समान रूप से मिल जाये। पानी की उपलब्धता नही होने पर नींदानाशकों कों 1 से 2 धमेला सूखी रेत में मिला ले फिर इसे एक एकड़ खेत में समान रूप से छिड़क दें। ध्यान रखे कि जब नींदानाशक का उपयोग किया जाये उस समय जमीन में पर्याप्त नमी होना अतिआवश्यक है।
उन्नत बियासी विधि
खेत तैयार होने के बाद एक एकड में 40 कि.ग्रा. उपचारित बीज की बुआई करें तथा दतारी चलाकर मिट्टी को मिला दें । खेत के एक कोने में दुगुना बीज डालें। बुआई के 25 से 30 दिन के अंदर में बियासी करें। बियासी करने के लिये संकरे फाल वाले हल का उपयोग करें। बियासी के 3 दिन के अंदर सघन चलाई करें।
उन्नत बियासी विधि (Advanced Transplanting Method) धान की खेती (Dhan ki kheti) में एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जो पौधों को अच्छी वृद्धि और उच्च उपज देने में मदद करती है। इस विधि में बियासी की प्रक्रिया को निम्नलिखित चरणों में विभाजित किया गया है:
खेत की तैयारी
खेत की सफाई
- खेत को साफ करें और उसमें मौजूद खरपतवार, पत्थर और अन्य अवांछित सामग्री को हटा दें।
- मिट्टी की जुताई करें ताकि मिट्टी नरम और भुरभुरी हो जाए।
उर्वरक और खाद का उपयोग
- खेत तैयार होने के बाद उसमें 4 टन प्रति एकड़ के हिसाब से सड़ी हुई गोबर की खाद डालें।
- नीम या करंज की खली का भी उपयोग करें, जिससे मिट्टी की उर्वरता और रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है।
बीज की बुआई
बीज की मात्रा
- एक एकड़ के लिए 40 किलोग्राम उपचारित बीज की आवश्यकता होती है।
- बीज को उपचारित करने के लिए जैविक या रासायनिक विधियों का उपयोग करें ताकि बीजों को रोगों से बचाया जा सके।
बुआई प्रक्रिया
- बीजों की बुआई खेत के एक कोने में अधिक मात्रा में करें (दुगुना बीज डालें)।
- बुआई के बाद दतारी (harrow) चलाकर बीजों को मिट्टी में मिला दें।
बियासी प्रक्रिया
बियासी का समय
- बुआई के 25 से 30 दिन के अंदर बियासी करें।
- इस समय पौधों की ऊंचाई लगभग 15-20 सेंटीमीटर होनी चाहिए और पौधों में 4-5 पत्तियां होनी चाहिए।
बियासी के लिए उपकरण
- संकरे फाल वाले हल (narrow blade plough) का उपयोग करें।
- हल का उपयोग करके पौधों को उखाड़ें और उन्हें खेत में पुन: लगाएं।
बियासी के बाद देखभाल
- बियासी के 3 दिन के अंदर सघन चलाई (compact run) करें।
- सघन चलाई से पौधों को मिट्टी में मजबूती से जड़ें जमाने में मदद मिलती है।
सिंचाई और उर्वरक
- बियासी के तुरंत बाद खेत में हल्की सिंचाई करें ताकि पौधों को आवश्यक नमी मिल सके।
- उर्वरक का उपयोग संतुलित मात्रा में करें, जिसमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, और पोटाश शामिल हो।
उन्नत बियासी विधि के लाभ
उच्च उपज
उन्नत बियासी विधि से पौधों की जड़ें मजबूत होती हैं और पौधों का विकास बेहतर होता है, जिससे उपज में वृद्धि होती है।
रोग प्रतिरोधक क्षमता
उपचारित बीजों का उपयोग करने से पौधों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और वे रोगों से सुरक्षित रहते हैं।
बेहतर जल प्रबंधन
बियासी के बाद सघन चलाई करने से पौधों को पर्याप्त नमी मिलती है और जल की बचत होती है।
खरपतवार नियंत्रण
बियासी के बाद निराई-गुड़ाई करने से खरपतवार का नियंत्रण बेहतर होता है और पौधों को पोषक तत्व मिलते हैं।
उर्वरक का प्रभावी उपयोग
उर्वरकों का संतुलित उपयोग करने से पौधों को आवश्यक पोषक तत्व मिलते हैं और फसल की गुणवत्ता में सुधार होता है।
उन्नत बियासी विधि एक प्रभावी खेती तकनीक है, जिससे किसान उच्च उपज और बेहतर गुणवत्ता वाली धान की फसल प्राप्त कर सकते हैं। इस विधि में बीज की बुआई, बियासी, और देखभाल के सभी चरणों का सही तरीके से पालन करने से फसल की उत्पादन क्षमता और गुणवत्ता में सुधार होता है। किसानों को इस विधि को अपनाकर अपनी खेती को अधिक लाभकारी बनाना चाहिए।
रोपाई विधि
इस विधि में बीज को पहले नर्सरी में बोया जाता है, और फिर 20-25 दिनों के बाद पौधों को खेत में रोपाई की जाती है। रोपाई के लिए खेत में 3-5 सेमी गहराई तक पानी भरा जाता है, और फिर पौधों को समानांतर रूप से खेत में लगाया जाता है। रोपाई के लिए खेत को छोटे-छोटे खंडों में बांटा जाता है, जिन्हें आली कहते हैं। रोपाई के लिए एक आली की चौड़ाई 20-25 सेमी होती है, और एक आली में 2-3 पंक्तियां होती हैं। एक पंक्ति में एक पौधे के बीच की दूरी 10-15 सेमी होती है। रोपाई के लिए बीज की आवश्यकता प्रति हेक्टेयर 20-25 किलोग्राम होती है।
रोपाई विधि के फायदे: इससे धान की उपज बढ़ती है, रोग-कीट का प्रभाव कम होता है, जल की बचत होती है, और बीज की आवश्यकता कम होती है।
रोपाई विधि के नुकसान: इसमें अधिक मेहनत और समय की जरूरत होती है, और इसमें बीज की गुणवत्ता का ध्यान रखना होता है।
छिड़काव विधि
इस विधि में बीज को सीधे खेत में बोया जाता है, बिना किसी नर्सरी के। छिड़काव के लिए खेत में 1-2 सेमी गहराई तक पानी भरा जाता है, और फिर बीज को बराबर रूप से खेत में छिड़का जाता है। छिड़काव के लिए बीज को पहले सूखने के लिए छोड़ा जाता है, और फिर उसे गर्म पानी में 24 घंटे के लिए भिगोया जाता है। इससे बीज का अंकुरण तेज होता है। छिड़काव के लिए बीज की आवश्यकता प्रति हेक्टेयर 80-100 किलोग्राम होती है।
छिड़काव विधि के फायदे: इसमें कम मेहनत और समय की जरूरत होती है, और इसमें बीज की गुणवत्ता का ध्यान नहीं रखना होता है।
छिड़काव विधि के नुकसान: इससे धान की उपज कम होती है, रोग-कीट का प्रभाव अधिक होता है, जल की अधिक आवश्यकता होती है, और बीज की अधिक आवश्यकता होती है।
धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए जल प्रबंधन
सिंचाई की आवश्यकताएं
धान की फसल को अच्छी सिंचाई (Irrigation) की आवश्यकता होती है। फसल के विभिन्न चरणों में पानी की आवश्यक मात्र अलग-अलग होती है। अंकुरण से लेकर फूल आने तक पानी की निरंतर आपूर्ति आवश्यक होती है।
अंकुरण चरण: समय-समय पर निरंतर पानी की आपूर्ति करना आवश्यक होता है।
फूल आने का चरण: रोपाई से लेकर फूल आने तक पर्याप्त सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।
पानी की बचत के उपाय
पानी की बचत (Water Conservation) के उपाय करना काफी महत्वपूर्ण होता है। इसके लिए ड्रिप सिंचाई (Drip Irrigation), स्प्रिंकलर सिंचाई (Sprinkler Irrigation), और मल्चिंग (Mulching) जैसी विभिन्न तरीकों का उपयोग किया जा सकता है।
ड्रिप सिंचाई: इस तरीके से बचत की अच्छी खासी बचत हो जाती है क्योंकि इसमें पौधों को आवश्यकतानुसार पानी ही पानी दिया जाता है।
स्प्रिंकलर सिंचाई: इससे पानी का छिड़काव साभी दिशा में समान रूप से किया जाता है।
मल्चिंग: इससे मिट्टी की नमी संरक्षित या बरकरार रहती है। इस तरीके से भी पानी की बचत अच्छी खासी बचत हो जाती है।
सूखा प्रभावित क्षेत्रों में जल प्रबंधन
सूखा प्रभावित क्षेत्रों में जल प्रबंधन (Water Management in Drought-Prone Areas) के लिए जल संरक्षण तकनीकों का उपयोग किया जाता है। इसके लिए वर्षा जल संग्रहण (Rainwater Harvesting) और सूक्ष्म सिंचाई (Micro-Irrigation) का प्रयोग करना सबसे उपयोगी होता है।
वर्षा जल संग्रहण: डैम या कृत्रिम तालाब बनाकर वर्षा के पानी को एकत्रित किया जाता है। इससे पानी की उपलब्धता बढ़ती है तथा उचित समय पर फसल सिचाई में सहयोग मिलता है।
सूक्ष्म सिंचाई: अवश्यता जितनी हो उतनी ही सिचाई से पानी की बचत होती है और पौधों को आवश्यकतानुसार पानी मिलता रहता है।
जल निकासी की व्यवस्था
अतिरिक्त पानी की निकासी (Drainage System) के लिए जल निकासी की व्यवस्था (Drainage System) महत्वपूर्ण है। इससे पानी का ठहराव नहीं होता और पौधों की जड़ों को नुकसान नहीं होता।
जल निकासी नाली: खेतो में पानी को निकालने के लिए खेतों के बीच-बीच में नालियों का निर्माण आवश्यक होता है।
उठी हुई क्यारियां: उठी हुई क्यारियां बनाना जल निकासी का एक कारगर उपाय है जिससे अनावश्यक पानी आसानी से निकाला जा सकता है।
धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए खाद और पोषण प्रबंधन
जैविक खाद का प्रयोग
जैविक खाद (Organic Manure) का प्रयोग मृदा की संरचना और उर्वरता को बढ़ाने में मदद करता है। इसमें गोबर की खाद, हरी खाद, और वर्मी कम्पोस्ट का उपयोग करना धान की फसल के लिए लाभदायक साबित हो सकता है।
धान की खेती के लिए गोबर की खाद
गोबर की खाद धान की खेती (Dhan ki kheti) में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह न केवल मिट्टी की संरचना में सुधार करती है बल्कि पौधों को आवश्यक पोषक तत्व भी प्रदान करती है। गोबर की खाद या कंपोस्ट का उपयोग धान की फसल के लिए लाभकारी होता है। अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद का उपयोग करना अधिक प्रभावी होता है, क्योंकि इसमें पौधों को आसानी से उपलब्ध पोषक तत्व होते हैं।
यह मृदा की संरचना को सुधारती है तथा अगर अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद या काम्पोस्ट का इस्तेमाल करे तो धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए लगभग 50 से 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक जरूरत पड़ती है।
गोबर की खाद की उपयुक्त मात्रा
- गोबर की खाद: 50 से 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर
गोबर की खाद का उपयोग
- भूमि की तैयारी:
- बुवाई से पहले खेत की गहरी जुताई करें।
- 50-100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद को खेत में समान रूप से फैलाएं।
- गोबर की खाद को मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें, ताकि पौधों को सभी आवश्यक पोषक तत्व मिल सकें।
- नर्सरी बेड की तैयारी:
- नर्सरी बेड में 10-15 क्विंटल गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर मिलाएं।
- गोबर की खाद को मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें, ताकि बीजों को अंकुरण और शुरुआती वृद्धि के लिए आवश्यक पोषक तत्व मिल सकें।
- रोपण के बाद:
- जब पौधों की ऊंचाई लगभग 20-25 सेमी हो जाए, तब खेत में 20-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद का प्रयोग करें।
- गोबर की खाद को पौधों की जड़ों के पास डालें और हल्की गुड़ाई करें, ताकि यह मिट्टी में अच्छी तरह मिल जाए।
गोबर की खाद के फायदे
- मिट्टी की संरचना में सुधार:
- गोबर की खाद मिट्टी की संरचना को ढीला और हवादार बनाती है, जिससे जड़ों को ऑक्सीजन की पर्याप्त मात्रा मिलती है।
- जल धारण क्षमता में वृद्धि:
- गोबर की खाद से मिट्टी की जल धारण क्षमता बढ़ती है, जिससे सूखे के समय में पौधों को पानी की कमी नहीं होती है।
- पोषक तत्वों की उपलब्धता:
- गोबर की खाद में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश और सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं, जो पौधों की वृद्धि और उपज को बढ़ाते हैं।
- मिट्टी की उर्वरता में वृद्धि:
- गोबर की खाद से मिट्टी की जैविक सामग्री बढ़ती है, जिससे मिट्टी की उर्वरता लम्बे समय तक बनी रहती है।
- पर्यावरणीय लाभ:
- गोबर की खाद जैविक खाद है, जिससे रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता कम होती है और मिट्टी और पर्यावरण दोनों को सुरक्षित रखा जा सकता है।
हरी खाद के रूप में सनई और ढेंचा का उपयोग
हरी खाद का उपयोग धान की खेती (Dhan ki kheti) में मृदा की उर्वरता या यू कहे तो उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए एक प्रभावी तरीका है। हरी खाद का मुख्य उद्देश्य मिट्टी में जैविक पदार्थों और पोषक तत्वों की मात्रा को बढ़ाना है, जिससे धान की फसल की वृद्धि और उपज में बढ़ोतरी होता है। हरी खाद के रूप में सनई और ढेंचा का उपयोग किया जा सकता है। आइए इस प्रक्रिया को विस्तार से समझें:
हरी खाद की उपयुक्त मात्रा
- सनई/ढेंचा के बीज: 25 किलो प्रति हेक्टेयर
हरी खाद का उपयोग
- बीज की बुवाई:
- धान की बुआई से 1 माह पूर्व, खेत की तैयारी करें।
- सनई या ढेंचा के बीज को पूरे खेत में समान रूप से 25 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़क दें।
- बुवाई के बाद हल्की गुड़ाई करें ताकि बीज मिट्टी में अच्छी तरह मिल जाएं और अंकुरण हो सके।
- हरी खाद की वृद्धि:
- एक माह तक सनई या ढेंचा को खेत में बढ़ने दें। इस अवधि में ये पौधे मिट्टी में नाइट्रोजन और अन्य पोषक तत्वों को जमा करेंगे।
- यह सुनिश्चित करें कि पौधों को पर्याप्त पानी और सूरज की रोशनी मिले ताकि वे अच्छी तरह बढ़ सकें।
- खेत की जुताई:
- एक माह बाद, जब सनई या ढेंचा की फसल अच्छी तरह बढ़ जाए, तब खेत की जुताई करें।
- पौधों को मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें। इससे पौधों के सभी जैविक पदार्थ और पोषक तत्व मिट्टी में समाहित हो जाएंगे।
हरी खाद के फायदे
- मिट्टी की उर्वरता में वृद्धि:
- सनई और ढेंचा के पौधे मिट्टी में नाइट्रोजन को बांधते हैं, जिससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है।
- मिट्टी की संरचना में सुधार:
- हरी खाद मिट्टी की संरचना को सुधारती है, जिससे मिट्टी की जल धारण क्षमता और एयरेशन में वृद्धि होती है।
- जैविक पदार्थों की वृद्धि:
- हरी खाद के उपयोग से मिट्टी में जैविक पदार्थों की मात्रा बढ़ती है, जो पौधों की वृद्धि और विकास के लिए आवश्यक होते हैं।
- पर्यावरणीय लाभ:
- हरी खाद का उपयोग रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता को कम करता है, जिससे पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- मिट्टी के रोगाणुओं में वृद्धि:
- हरी खाद के उपयोग से मिट्टी में लाभकारी सूक्ष्मजीवों की संख्या बढ़ती है, जो पौधों की रोग प्रतिरोधकता को बढ़ाते हैं और मिट्टी की स्वास्थ्य को बनाए रखते हैं।
धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए वर्मी कम्पोस्ट
वर्मी कम्पोस्ट का उपयोग धान की खेती (Dhan ki kheti) में अत्यंत लाभकारी होता है। यह जैविक खाद पौधों को आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करने के साथ-साथ मिट्टी की संरचना और जल धारण क्षमता को भी सुधारती है। वर्मी कम्पोस्ट में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश, और अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं जो धान की अच्छी वृद्धि और उच्च उपज के लिए महत्वपूर्ण हैं।
वर्मी कम्पोस्ट की उपयुक्त मात्रा
- प्रति हेक्टेयर वर्मी कम्पोस्ट: 5-10 टन (5000-10000 किग्रा)
वर्मी कम्पोस्ट का उपयोग
- भूमि की तैयारी:
- बुवाई से पहले भूमि की गहरी जुताई करें।
- 5-10 टन प्रति हेक्टेयर वर्मी कम्पोस्ट को मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें।
- यह सुनिश्चित करें कि वर्मी कम्पोस्ट समान रूप से खेत में फैल जाए।
- नर्सरी बेड की तैयारी:
- नर्सरी बेड में 1-2 टन वर्मी कम्पोस्ट प्रति हेक्टेयर मिलाएं।
- वर्मी कम्पोस्ट को मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें, ताकि बीजों को अंकुरण और शुरुआती वृद्धि के लिए आवश्यक पोषक तत्व मिल सकें।
- रोपण के बाद:
- जब पौधों की ऊंचाई लगभग 20-25 सेमी हो जाए, तब खेत में 2-3 टन प्रति हेक्टेयर वर्मी कम्पोस्ट का प्रयोग करें।
- वर्मी कम्पोस्ट को पौधों की जड़ों के पास डालें और हल्की गुड़ाई करें, ताकि यह मिट्टी में अच्छी तरह मिल जाए।
रासायनिक उर्वरकों का संतुलित प्रयोग
रासायनिक उर्वरकों (Chemical Fertilizers) का संतुलित प्रयोग (Balanced Use) पौधों को आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करता है। इसके लिए नाइट्रोजन (N), फॉस्फोरस (P), और पोटाश (K) का संतुलित उपयोग आवश्यक है।
नाइट्रोजन: पौधों की वृद्धि और हरी पत्तियों के लिए आवश्यक।
फॉस्फोरस: जड़ों के विकास और फूल आने के लिए आवश्यक।
पोटैशियम: फसल की गुणवत्ता और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए आवश्यक।
शीघ्र पकने वाली प्रजातियाँ (100 दिन से कम)
- नाईट्रोजन: 40-50 किग्रा/हेक्टेयर
- फॉस्फोरस: 20-30 किग्रा/हेक्टेयर
- पोटैशियम: 15-20 किग्रा/हेक्टेयर
शीघ्र पकने वाली प्रजातियाँ उन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त होती हैं जहाँ जल की उपलब्धता कम होती है या समय की कमी होती है। इन प्रजातियों की उपज का समय कम होता है, इसलिए इन्हें अपेक्षाकृत कम उर्वरक की आवश्यकता होती है।
मध्यम अवधि की प्रजातियाँ (110-125 दिन की)
- नाईट्रोजन: 80-100 किग्रा/हेक्टेयर
- फॉस्फोरस: 30-40 किग्रा/हेक्टेयर
- पोटैशियम: 20-25 किग्रा/हेक्टेयर
मध्यम अवधि की प्रजातियाँ अधिकांश क्षेत्रों में उगाई जाती हैं और इनमें सामान्य उपज और गुणवत्ता होती है। इन प्रजातियों को अधिक पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है क्योंकि इनका विकास काल थोड़ा लंबा होता है।
देर से पकने वाली प्रजातियाँ (125 दिनों से अधिक)
- नाईट्रोजन: 100-120 किग्रा/हेक्टेयर
- फॉस्फोरस: 50-60 किग्रा/हेक्टेयर
- पोटैशियम: 30-40 किग्रा/हेक्टेयर
देर से पकने वाली प्रजातियाँ उच्च उपज देने वाली होती हैं और इनका विकास काल लंबा होता है। इसलिए इन्हें अधिक उर्वरकों की आवश्यकता होती है ताकि उनकी पोषण की जरूरतें पूरी हो सकें।
संकर प्रजातियाँ
- नाईट्रोजन: 120 किग्रा/हेक्टेयर
- फॉस्फोरस: 60 किग्रा/हेक्टेयर
- पोटैशियम: 40 किग्रा/हेक्टेयर
संकर प्रजातियाँ उच्च उपज और बेहतर गुणवत्ता के लिए जानी जाती हैं। ये प्रजातियाँ अत्यधिक पोषक तत्वों की मांग करती हैं, इसलिए इन्हें अधिक मात्रा में उर्वरकों की आवश्यकता होती है।
उर्वरक प्रबंधन की महत्वपूर्ण बातें
नाइट्रोजन (N)
- प्रभाव: पौधों की वृद्धि, हरी पत्तियों और अंकुरण में मदद करता है।
- उपयोग का समय: नाइट्रोजन को बुवाई के समय, टिलरिंग अवस्था और फूल आने के समय में तीन बार दिया जाना चाहिए।
फॉस्फोरस (P)
- प्रभाव: जड़ों की वृद्धि, पुष्पण और बीज उत्पादन में मदद करता है।
- उपयोग का समय: फॉस्फोरस को बुवाई के समय और रोपण के समय दिया जाना चाहिए।
पोटैशियम (K)
- प्रभाव: पौधों की रोग प्रतिरोधकता और सूखा सहनशीलता में वृद्धि करता है।
- उपयोग का समय: पोटैशियम को बुवाई के समय और टिलरिंग अवस्था में दिया जाना चाहिए।
फॉस्फोरस, नाइट्रोजन, और पोटैशियम की आवश्यकताएं
धान की फसल में फॉस्फोरस, नाइट्रोजन, और पोटाश (Phosphorus, Nitrogen, and Potash) की आवश्यकताएं महत्वपूर्ण होती हैं। इनके सही मात्रा में प्रयोग से फसल की उपज और गुणवत्ता में सुधार होता है।
फॉस्फोरस: 30-40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।
नाइट्रोजन: 60-80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।
पोटैशियम: 40-50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।
सूक्ष्म पोषक तत्वों की भूमिका
सूक्ष्म पोषक तत्व (Micronutrients) जैसे कि, जिंक (Zn), आयरन (Fe), और बोरोन (B) पौधों के विकास और उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनकी कमी से पौधों की वृद्धि रुक जाती है और उपज में कमी आती है।
जिंक: 5-10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।
आयरन: 4-5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।
बोरोन: 1-2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।
धान की खेती (Dhan ki kheti) में खरपतवार नियंत्रण
निराई-गुड़ाई की विधि
निराई-गुड़ाई (Weeding) की विधि से खेत में खरपतवारों का नियंत्रण (Weed Control) किया जा सकता है। इसके लिए हाथ से निराई और यांत्रिक निराई का प्रयोग किया जा सकता है।
हाथ से निराई: खेत में हाथ से खरपतवारों को निकालने की प्रक्रिया को कहते है।
यांत्रिक निराई: निराई की प्रक्रिया मशीनों का प्रयोग करके किया जाता है। इसमें समय की काफी बचत हो जाती है।
खरपतवार नाशक का प्रयोग
खरपतवार नाशक (Herbicides) का प्रयोग खेत में खरपतवारों को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है। इसके लिए पूर्व उगने वाले और बाद में उगने वाले खरपतवार नाशकों का उपयोग किया जा सकता है।
पूर्व उगने वाले खरपतवार नाशक: इसका प्रयोग बुआई से पहले छिड़काव करके किया जाता है।
बाद में उगने वाले खरपतवार नाशक: इसका प्रयोग बुआई के बाद छिड़काव करके किया जाता है।
जैविक और रासायनिक नियंत्रण उपाय
फसल की अच्छी पैदावार के लिय खरपतवारों का नियंत्रण करना बहुत जरूरी होता है। इसके लिए जैविक (Biological) और रासायनिक नियंत्रण (Chemical Control) उपायों का उपयोग करके बेहतर उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
जैविक नियंत्रण: खरपतवारों का जैविक नाशक का इस्तेमाल करके नियंत्रण करने की प्रक्रिया को कहते है, जैसे कि नीम का तेल खरपतवारों नियंत्रित करने का एक अच्छा और सफल जैविक नाशक है।
रासायनिक नियंत्रण: रासायनिक खरपतवार नाशक जैसे कि ग्लाइफोसेट का उपयोग करके भी खरपतवारों का नियंत्रण किया जाता है।
रोग और कीट प्रबंधन
सामान्य रोग और उनके लक्षण
धान की फसल में सामान्य रोग (Common Diseases) जैसे कि, ब्लास्ट (Blast), शीथ ब्लाइट (Sheath Blight), और ब्राउन स्पॉट (Brown Spot) होते हैं। इनके लक्षणों में पत्तियों पर धब्बे, फफूंद का जमना, और पौधों का झुकना शामिल है।
ब्लास्ट: ये धान के पौधे के ऊपरी भाग ( पत्तियों, तना तथा पुष्पगुच्छ ) पर भूरे धब्बे (पत्तियों का सुखना) और फफूंद जैसे लक्षण दिखाई देते है।
शीथ ब्लाइट: शीथ ब्लाइट एक बीमारी है जो राइज़ोक्टोनिया सोलानी नामक एक ख़तरनाक फफूंद के कारण होती है। इससे पत्तियाँ संक्रमित होके जल्दी मर जाती हैं, और छोटे पौधों को भी नुकसान पहुँच सकता है।
ब्राउन स्पॉट: ये फफूंद जनित रोग है जिससे पत्तियों पर भूरे और गोल धब्बे बन जाते है ।
कीटों का पहचान और नियंत्रण
धान की फसल में सामान्य कीट (Common Pests) जैसे कि, स्टेम बोरर (Stem Borer), लीफ फोल्डर (Leaf Folder), और ब्राउन प्लांट हॉपर (Brown Plant Hopper) होते हैं। इनका नियंत्रण जैविक और रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग करके किया जा सकता है।
स्टेम बोरर: तना छेदक कीट ऐसे कीट हैं जो धान के पौधों को उगने से लेकर उनके पूर्ण विकसित होने तक खाते रहते हैं तथा उन्हें नुकसान पहुंचाते हैं।
लीफ फोल्डर: यह कीट मुख्यरूप से धान की फसल को युवा अवस्था से लेकर फूल आने तक नुकसान पहुंचाता है। पत्तियों को मोड़ता है और खाता है।
ब्राउन प्लांट हॉपर: रस चूसकर पौधों की उत्पादन को नुकसान पहुंचाता है।
जैविक कीटनाशक का उपयोग
जैविक कीटनाशक (Biopesticides) जैसे कि, नीम का तेल (Neem Oil), बैसिलस थुरिंजिएन्सिस (Bacillus Thuringiensis), और ट्राइकोडर्मा (Trichoderma) का उपयोग कीट नियंत्रण में किया जा सकता है।
नीम का तेल: नीम के तेल का गंध कीटों के खिलाफ काफी प्रभावशाली होता है। इसके प्रयोग से विभिन्न प्रकार के कीटों को नियंत्रित किया जा सकता है।
बैसिलस थुरिंजिएन्सिस: यह मुख्य रूप से लीफ फोल्डर और स्टेम बोरर के खिलाफ अत्यधिक प्रभावी होता है।
ट्राइकोडर्मा: यह विभिन्न फफूंद रोगों के खिलाफ प्रभावी होता है।
फफूंदनाशक और कीटनाशक का प्रयोग
रोग और कीटों के नियंत्रण के लिए फफूंदनाशक (Fungicides) और कीटनाशक (Insecticides) का संतुलित और समय पर प्रयोग किया जाना चाहिए।
फफूंदनाशक: कवक रोगों के खिलाफ प्रयोग।
कीटनाशक: कीटों के नियंत्रण के लिए प्रयोग।
धान के फसल की कटाई और उपरांत प्रबंधन
कटाई का सही समय
धान की कटाई (Harvesting) का सही समय तब होता है जब पौधे की 80-90% दाने पक चुके होते हैं। इससे उपज की गुणवत्ता और मात्रा में सुधार होता है।
दाने की परिपक्वता: जब 80-90% दाने पक चुके हों ।
पौधे का रंग: जब पौधे का रंग सुनहरा या गोल्डन ब्राउन हो जाए तो समझ जाना चाहिए कि इसके कटाई का समय हो गया है।
कटाई की विधियां (हाथ से, मशीनी)
धान की कटाई करने की बात करें तो हाथ से (Manual Harvesting) और मशीनी (Mechanical Harvesting) दोनों विधियों से की जा सकती है।
हाथ से कटाई: अगर आपके पास छोटे खेत या कम खेत है तो आप में हाथ से हंसिया का उपयोग करके भी कटाई कर सकते है।
मशीनी कटाई: बड़े खेतों या काफी ज्यादा खेत होने पर हाथ से कटाई करना एक कठिन, खर्चीला और अत्यधिक समय लगने वाली प्रक्रिया है। इसके विपरीत मशीनी से कटाई (Mechanical Harvesting) या मशीन हार्वेस्टर का उपयोग करके समय और पैसे दोनों की बचत कर सकते है। मशीन की उपयोगिता के आधार पर आप धान और पारली या धान के साथ-साथ महीन चारे लायक भूसा अथवा धान के जी जगह सीधे चावल और महीन चारे लायक भूसा प्राप्त कर सकते है।
धान का भंडारण
कटाई के बाद धान का भंडारण (Storage) उचित तरीके से किया जाना चाहिए। इसके लिए सूखी और हवादार जगह का चयन करना आवश्यक है।
सूखी जगह: धान का भंडारण करने के लिए यह बहुत जरूरी है कि भंडारण कक्ष में नमी न हो जिससे संग्रहित किया हुआ अनाज जल्दी खराब न हो सके।
हवादार जगह: भंडारण कक्ष हवादार भी होना चाहिए ताकि संग्रहित अनाज को लंबे समय तक रखा जा सके।
धान के उपज का मूल्यांकन और विपणन
धान के उपज का मूल्यांकन (Yield Evaluation) और विपणन (Marketing) महत्वपूर्ण है। इसके लिए गुणवत्ता का परीक्षण और सही मूल्य पर विक्रय आवश्यक है।
गुणवत्ता परीक्षण: धान के उपज की गुणवत्ता परीक्षण के आधार पर उपज के सही मूल्य का आकलन लगाये जाने में मदत मिलती है।
सही मूल्य: गुणवत्ता परीक्षण के बाद उपज का सही मूल्य बाजार में चल रहे भाव तथा सरकारी भाव की तुलना करके लगा सकते है इससे उपज के लाभ प्रतिशतता को भी बढ़ाया जा सकता है।
धान की उन्नत खेती तकनीकें
श्री विधि (System of Rice Intensification – SRI)
श्री विधि (SRI) एक उन्नत खेती तकनीक है जो कम बीज, पानी, और उर्वरक का उपयोग करते हुए अधिक उपज प्राप्त करने में मदद करती है।
कम बीज: इस विधि स कम बीज का प्रयोग होता है।
कम पानी: इस विधि से पानी की बचत अच्छी खासी हो जाती है।
उर्वरक का संतुलित प्रयोग: इस विधि में उर्वरकों का प्रयोग संतुलित मात्रा में किया जाता है।
उन्नत खुर्रा बुआई विधि
उन्नत खुर्रा बुआई विधि (Advanced Broadcasting Method) से बीजों की समान वितरण होती है और पौधों का विकास बेहतर होता है।
समान वितरण: इस विधि में बीजों की समान वितरण किया जाता है।
बेहतर विकास: इस विधि को अपनाने से पौधों का बेहतर विकास होता है।
धान की जैविक खेती
धान की जैविक खेती (Organic Farming) से रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग कम होता है और उपज का पोषण मूल्य अधिक होता है।
जैविक उर्वरक: धान की जैविक खेती के लिए सबसे महत्वपूर्ण है जैविक उर्वरकों का प्रयोग जिसमें गोबर की खाद, नडेप खाद, केचुआ खाद जैसे प्रमुख जैविक खाद या जैविक उर्वरक प्रमुख है।
जैविक कीटनाशक: धान की फसल को कीटनाशकों से बचाव के लीये जैविक कीटनाशकों का प्रयोग उत्तम माना जाता है जिसमें ब्रह्मास्त्र, निम्हास्त्र, अग्निहास्त्र, ट्राईकोडर्मा आदि सामील है।
प्रक्षेत्र में तकनीकी सहायता और प्रशिक्षण
किसानों को प्रक्षेत्र में तकनीकी सहायता (Technical Assistance) और प्रशिक्षण (Training) प्रदान करना महत्वपूर्ण है। इसके लिए कृषि विज्ञान केंद्रों और सरकारी संस्थानों का सहयोग लिया जा सकता है।
तकनीकी सहायता: प्रक्षेत्र में तकनीकी सहायता।
प्रशिक्षण: किसानों को प्रशिक्षण प्रदान करने से नये-नये तकनीकों की जानकारी होती है जिससे एक सशक्त और उत्तम खेती का विकास होता है।
धान की खेती (Dhan ki kheti) के लिए सरकारी योजनाएं और सहायता
कृषि योजनाएं और अनुदान
सरकार विभिन्न कृषि योजनाओं (Agricultural Schemes) और अनुदानों (Subsidies) के माध्यम से किसानों की मदद करती है। इसके लिए किसान क्रेडिट कार्ड (Kisan Credit Card), प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (PM-Kisan), और अन्य योजनाएं उपलब्ध हैं।
किसान क्रेडिट कार्ड: यह किसानों को ऋण प्रदान करने की एक अच्छी सुविधा है।
प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना: आर्थिक सहायता ।
बीमा और ऋण सुविधाएं
किसानों के लिए फसल बीमा (Crop Insurance) और ऋण सुविधाएं (Loan Facilities) उपलब्ध हैं। इसके लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY) और किसान क्रेडिट कार्ड (KCC) प्रमुख हैं।
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना: यह एक फसल बीमा सुविधा है जिसमें फसल अगर किसी भी प्रकार से क्षतिग्रस्त होता है तो उसका लागत मूल्य या बीमा के नियम के अनुसार नुकसान की भरपाई की जाती है।
किसान क्रेडिट कार्ड: इस ऋण सुविधा से आप अवश्यता अनुसार ऋण ले सकते है।
कृषि विस्तार सेवाएं
कृषि विस्तार सेवाएं (Agricultural Extension Services) किसानों को नई तकनीक और जानकारी उपलब्ध कराती हैं। इसके लिए कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) और कृषि विभाग की सेवाएं प्रमुख हैं।
कृषि विज्ञान केंद्र: कृषि विज्ञान केंद्र से आप धान के खेती की तकनीकी जानकारी आसानी से ले सकते है।
कृषि विभाग: आप अपने किसी भी नजदीकी कृषि विभाग से धान की खेती से जुड़ी किसी भी प्रकार की सहायता और जानकारी ले सकते है।
धान की खेती (Dhan ki kheti) का नवीनतम अनुसंधान और विकास
शोध संस्थानों का योगदान
धान की खेती में विभिन्न शोध संस्थानों (Research Institutions) का महत्वपूर्ण योगदान है। इनके द्वारा नए किस्मों का विकास और उन्नत खेती तकनीकों का प्रचार किया जाता है।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI): यहाँ साभी तरह के बीजों की नई किस्मों का विकास किया जाता है जिसमें धान का बीजों के किस्म भी प्रमुख है।
केंद्रीय धान अनुसंधान संस्थान (CRRI): यह भी धान के उन्नत किस्मों को नई तकनीक से विकास करने के लिए प्रसिद्ध अनुसंधान है।
नवीनतम तकनीकी विकास
धान की खेती (Dhan ki kheti) में नवीनतम तकनीकी विकास (Latest Technological Developments) से उत्पादन और गुणवत्ता में सुधार होता है। इसके लिए जैव प्रौद्योगिकी (Biotechnology), जीनोम एडिटिंग (Genome Editing), और प्रिसिजन फार्मिंग (Precision Farming) का उपयोग किया जा रहा है।
जैव प्रौद्योगिकी: यह नई किस्मों का विकास की तकनीक है जिससे धान की भी नई-नई किस्मों का विकाश किया जा रहा है।
जीनोम एडिटिंग: इस तकनीक से रोग प्रतिरोधक किस्मों का विकास किया जा रहा है। जैसे CRIPSR/Cas9 जीनोम एडिटिंग से बने हुए धान के किस्म है।
प्रिसिजन फार्मिंग: सटीक खेती तकनीक एक ऐसी तकनीक है जिसमें नए-नए और आधुनिक उपकरणों का उपयोग करके सम्पूर्ण खेती प्रबंधन को बेहतर किया जाता है जिससे फसल की उत्पादकता को बड़ाया जाता है।
निष्कर्ष
धान की खेती (Dhan ki kheti) में सफलता प्राप्त करने के लिए उपयुक्त भूमि की तैयारी, बीजोपचार, जल और पोषण प्रबंधन, और फसल की देखभाल महत्वपूर्ण हैं। उन्नत तकनीकों और सरकारी योजनाओं का समुचित उपयोग करके किसान अपनी उपज और आय में सुधार कर सकते हैं। यह रूपरेखा किसानों को धान की खेती की संपूर्ण प्रक्रिया में मार्गदर्शन प्रदान करती है और उन्हें उच्चतम उत्पादन प्राप्त करने में मदद करती है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs):
सबसे कम पानी वाला धान कौन सा है?
पूसा सुगंध-5, पूसा-1612 और स्वर्ण शक्ति धान की किस्मे जो की अपनी विशेषताओं के लिए जानी जाती है और इनकी सबसे खास बात ये है कि इन तीनों धान की किस्मों में पानी की जरूरत तुलनात्मक रूप से कम होती है।
60 दिन में पकने वाली धान का क्या नाम है ?
मुख्य रूप से 60 दिन मे पकर तैयार होने वाली धान की फसल साठा और करिश्मा होती है | किसान लगातार 60 दिनों तक इस धान की फसल में पानी लगाता है। ये धान के पौध फरवरी में ही डलना शुरू हो जाती है और करीब 30 दिन में पौध तैयार हो जाती है।
धान की खेती कब और कैसे करें?
धान की हाइब्रिड किस्मों के लिए इसकी नर्सरी मुख्य रूप से मई के दूसरे सप्ताह से पूरे जून के महीने तक लगा सकते है और मध्यम अवधि की हाइब्रिड लिए नर्सरी मई के दूसरे सप्ताह अच्छा माना जाता है । और बात करे बासमती किस्मों की तो इसके लिए नर्सरी जून के पहले सप्ताह में लगाई जाती है।
भारत में सबसे ज्यादा धान की खेती (Dhan ki kheti) कहां होती है?
भारत में सबसे ज्यादा धान की खेती (Dhan ki kheti) पश्चिम बंगाल में होती है।
सबसे अधिक उपज देने वाली धान कौन सी है?
पूसा 834 बासमती किस्म सबसे उच्च उपज देने वाली धान है जिसे की भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) द्वारा किया विकसित गया था | जो की एक अर्ध-बौनी धान की किस्म है जो की लगभग 125-130 दिनों मे पकर तैयार होती है |